आकृति 1: दंतेश्वरी देवी
प्राचीन समय में बस्तर को चक्रकोट के नाम से तथा वर्तमान दंतेवाडा क्षेत्र को तरलापाल के नाम से जाना जाता था। चालुक्य राजवंश के काकतिय राजाओं ने आरंभ में बारसूर को अपनी राजधानी बनाया। कालांतर में उन्होने अपनी राजधानी दंतेवाड़ा स्थाानांतरित कर ली। काकतिय राजाओं के साथ उनकी इष्टदेवी दंतेश्वरी वारंगल से उनके साथ आयी और उसकी स्थापना शंखनी एवं डंकनी नदियों के संगम स्थल पर की गई, इसी कारण इस स्थान का नाम दंतेवाडा पड़ गया। काकतिय शासकों ने दंतेवाडा स्थित दंतेश्वरी का मंदिर 14 वी शताब्दी में बनवाया था।
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आकृति 2: दंतेवाड़ा स्थित दंतेश्वरी देवी मंदिर
एक विश्वास यह भी प्रचलित है कि काकतिय शासकों की आराध्य देवी देंतेश्वरी वास्तव में नाग राजवंश जो कि काकतिय शासको से पहले यहां सत्तारूढ थे, की इष्टदेवी मानिकेश्वरी का ही दूसरा नाम है।
एक अन्य प्रचलित किंवदंती के अनुसार देवी सती ने अपने पिता दक्ष प्रजापति द्वारा एक यज्ञ के दौरान अपने पति शिव की अवमानना किये जाने से दुखी होकर यज्ञ वेदी के अग्निकुण्ड में कूद कर अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। देवी सती की मृत्यु के दुख से शिव को बाहर निकालने के लिए विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से देवी सती के मृत शरीर के टुकडे-टुकडे कर दिये। देवी सती के शरीर के वे कटे अंग बिखर कर बावन स्थानों पर गिरे। इन सभी स्थानों पर इन अंगों के नाम के साथ विभिन्न शक्तिपीठो की स्थापना हुई। विश्वास के अनुसार दंतेवाडा में सती का दाॅत गिरा इसी कारण यहां दंतेश्वरी शक्तिपीठ की स्थापना हुई।
वर्तमान दंतेश्वरी मंदिर का पुर्नउद्धार देश के स्वाधीनता से पहले किया गया था। मंदिर के चार मुख्य भाग हैं, गर्भगृह, महामण्डप, मुख्यमण्डप एवं सभामण्डप। कहा जाता कि इस मंदिर में रखी अनेक मूर्तियां बारसूर के मंदिरों से लायी गई हैं। मंदिर के सामने स्थापित पत्थर का बना गरूढ स्तंभ भी बारसूर के मंदिर से यहां लाया गया था। काकतिय शासक दंतेश्वरी देवी के अनन्य भक्त थे, वे जब भी देवी दर्शन के लिए आते थे तब मंदिर को एक गांव दान कर जाते थे। 1909 तक इस प्रकार के 144 गांव मंदिर को दान स्वरूप प्राप्त हो चुके थे। मंदिर की व्यवस्था उड़ीसा से आये जिया परिवार द्वारा की जाती है एवं इसी परिवार के सदस्य आज तक यहा पुजारी हैं तथा पूजा संपन्न कराते हैं।
बस्तर के आदिवासी एवं गैर-आदिवासी सभी समाज दंतेश्वरी को समान रूप से पूजते है एवं यह बस्तर की सर्वाधिक शक्तिशाली देवी है।बस्तर के काकतिय राजा चन्द्रवंशी राजपूत थे परन्तु बस्तर में वे ऐसी वनवासी जनजातिय प्रजा पर राज्य कर रहे थे जिनके विश्वदर्शन एवं धार्मिक विश्वास राजा से भिन्न थे तथा जो राजा को शासक स्वीकार करते थे परन्तु राज देवी की पूजा नही करते थे। अपनी अघ्यात्मिक छवि को विशाल बनाने के लिए,अपने लम्बे शासन काल में इस राज परिवार ने उड़ीसा के अनेक हिन्दू एवं ब्राह्मण तत्वों का बस्तर के जन-जातीय समाज में समावेश कराया। बस्तर का दशहरा उत्सव इसका प्रमुख उदाहरण है जिसका संबंध उत्तर भारतीय रामायण से नहीं है। इस अवसर पर बनाया जाने वाला विशाल रथ उड़ीसा के पुरी की जगन्नाथ यात्रा परंपरा के अधिक निकट है। इसमें दंतेश्वरी की पूजा सर्वोपरि है जिसमें शासक वर्ग की अभिजात स्थिति प्रमुख रूप से परिलक्षित होती है।
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आकृति 3: दशहरा के अवसर पर जगदलपुर में निकाला जाने वाला रथ।
यह सर्वविदित है कि दंतेश्वरी बस्तर की मूल देवी नहीं बल्कि बारगंल से आई बाहरी देवी है। आदिवासी उसे आज भी ’राजाघर की देवी’ कहते हैं। इसे हाथी पर सवारी करने का अधिकार है। आदिवासी इसकी स्थापना अपने घरों में नहीं करते। कोंडागांव के रामसिहं घढ़वा बताते है दंतेश्वरी वारंगल से आई हुई राजाघर की देवी है। इसका देवस्थान मंदिर कहलाता है जिसमें कोई अन्य देवी-देवता नहीं रह सकता। इसका रहना, खाना-पीना अलग होता है। आदिवासी इसकी पूजा नहीं करते है, वे इससे सामान्य मनौतियां मांगते हैं, परन्तु पुजारी के माध्यम से। दंतेश्वरी का पुजारी ब्राहण नहीं बन सकता, यह अधिकार केवल धाकड़ जाति के लोगों को ही है। धाकड़ ही इसके पुजारी हो सकते है जो अपने आपको क्षत्रीय मानते हैं।
दंतेश्वरी के प्रमुख मंदिर दंतेवाड़ा, जगदलपुर और बड़े डोंगर में हैं। दंतेवाड़ा के मंदिर के पुजारी धाकड़ कहते हैं कि दंतेश्वरी को कभी भी किसी भी प्रकार की धातु की र्मूिर्तयां नहीं चढ़ाई जातीं। इसे पूजा में दूध, घी, चावल, नारीयल, अगरबती, फूल चढ़ाया जाता है। रियासत के जमाने में बस्तर के राजा नई फसल का धान दशहरे से पहले नहीं खाते थे। वे दशहरे के दिन दंतेश्वरी को नया अन्न अर्पित करने के बाद ही उसे खाते थे। दशहरे पर दंतेश्वरी की सबसे बड़ी पूजा की जाती है। इस दिन इसका रथ भी निकाला जाता है। पहले रथ में दंतेश्वरी का छत्र लेकर राजा स्वयं बैठता था परन्तु अब रथ में राजा और दंतेश्वरी दोनों के नाम के छत्र निकाले जाते हैं ।
दंतेवाड़ा स्थित दंतेश्वरी देवी के मंदिर के पुजारी श्री हरिहरनाथ से १९९३ में लिया गया साक्षात्कार:
हम जाति से क्षत्रीय हैं, पुजारी हमारी उपाधी या पदवी है जो हमारे परिवार को दंतेश्वरी माई के मंदिरकी स्थापना के समय से प्राप्त है। दंतेश्वरी दुर्गा का रूप है और उन्हे पशुबलि दी जाती है इस कारण यहां ब्रहण पुजारी नही होता। यह चुनाव स्वयं देवी ने ही किया कि उनका पुजारी ब्रहाण नहीं राजपूत क्षेत्रीय होगा।
शिवरात्रि के बाद पंचमी से लेकर होली तक जात्रा और मेले का समय होता है। छठवीं से होली तक नौ दिन लगातार माई का जलूस निकलता है। प्रतिदिन माई की डोली सजाकर निकाली जाती है। शिवरात्रि के बाद नवीं से यहां जात्रा शुरू होगा जो नौ दिन तक चलेगा। पूरे बस्तर के दवी-देवता उस समय यहां आते हैं। यहां देव-देवियों के आंगा या डोली नहीं आते, केवल उनके छत्र आते हैं , उनके साथ बाजा-नगाड़ा, मोहरी आदि आते हैं। देवियों के डांग (ध्वजा) भी लाये जाते हैं।
यहाँ मढ़ई मेला की प्रथा राजा ने शुरू कराई, उन्होने कहा इस अवसर पर सारे देवी-देवताओं को यहां बुलाकर उनकी पूजा करने से प्रजा पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा।
यह आवश्यक नहीं है कि बस्तर के सभी देवी-देवता यहां लाए जाऐं पर आदिवासी आमतौर पर अपने देवी-देवता यहां लाते हैं। जो दवेी देवता यहाँ आते हैं उन्हें मेढ़का डोंगर (पहाड़ के पास जहाँ माई का स्थान है वहां ठहराया जाता है। पहले यहां माई के कलश-छत्र की स्थापना होती है। आने वाले सभी देवी-देवताओं के डांग छत्र प्रतिदिन दंतेश्वरी के जलूस में निकाले जाते हैं। सुबह-शाम आरती के समय वे मंदिर आते हैं। वे यहां उत्सव की शोभा बढाने आते हैं।
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आकृति 4: दशहरा के अवसर पर जगदलपुर राजमहल स्थित दंतेश्वरी मंदिर लाये जानेवाले विभिन्न देवी -देवताओं के छात्र, त्रास और डोली।
मढ़ई का जो रूप आज है वह तो राजा ने शुरू करवाया था, पर पहले और आज भी दंतेवाड़ा में मढ़ई एक मेले के रूप में होती थी, जिसमें पांच जानवरों के शिकार का नृत्य नाटक पांच दिन किया जाता था। यह नृत्य नाटिकाएं गौर-मार चीतल-मार कुढरी-मार आदि कहलाती हैं। इस प्रकार की नृत्य नाटिकाएं दंतेवाड़ा बाल पेट गांव और बारसूर में होती हैं। इसमें नर्तक पशु आकृतियों के मुखौटे पहनते हैं और उनका रूप धरते हैं।
बारसूर और बालपेट गांव में मढ़ई होली के एक दिन पहले होती है। यहाँ नृत्य नाटिका तेलंगा (तेलंगाना के रहने वाले लोग करते हैं। देवी का नियम पालन करने वाले बारह व्यक्ति बारह लंकवार कहलाते हैं। यह सभी तेलंगा होते हैं जिनकी पदवियां भिन्न-भिन्न होती हैं, यह नाईक, समरत, कतयार, गायता, भण्डारी, बोड़का, पण्डार, माडिया पुजारी, मुढी पुजारी, चालकी, राऊत यादव, पढयार कहलाती हैं। इन सभी के अलग-अलग काम होते हैं। सभी के जिम्मे एक-एक काम रहता है। भण्डारी का काम है चवंर डुलाना। कतयार का काम कोढरी-मार नृत्य करना। गौरमार का नाटक समरत लोग करते हैं।
तेलंगा लोग हल्बा आदिवासी होते हैं, वे वारंगल से देवी के साथ यहां आए थे। वारंगल से अन्नम देव महाराज माई को 1358 में लाए थे। कहते हैं अन्नम देव को मुसलमान राजाओं ने हराया जिससे राजा वहां से भागना चाहते थे। वे वारंगल में देवी के स्थान पर गए और पूजा की। देवी प्रसन्न हो गई और उसने राजा को साथ चलने को कहा। राजा गोदावरी नदी पार कर बस्तर की ओर चलने लगा, देवी ने कहा में तुम्हारे पीछे-पीछे चलूंगी तुम मुझे पीछे पलटकर मत देखना। जहां तुम पलट कर देखोगे वहीं से तुम्हारे राज्य की सीमा शुरू होगी। जब राजा यहाँ शंखनी-डंकनी नदी के संगम पर पहुंचे तब देवी के पैरों में बंधे घुंघरूओं में नदी की रेत भर गयी और वे बजना बंद हो गए, राजा ने सोचा श्यायद देवी छोड़ कर चली गयी। राजा ने जैसे ही पलट कर देखा देवी अंतरध्यान हो गयी। यहीं से उनके राज्य की सीमा आरंभ हो गयी।
राजा अन्नम देव ने इसी स्थान पर मंदिर बनवाया पत्थर की मूर्ति बनवाई और दवेी की स्थापना कराई। राजा जहां भी जाते थे, देवी की पूजा जरूर करते थे। बिना पूजा वे भोजन भी नहीं करते थे। जहां उनका पड़ाव होता उन्होंने वहीं देवी का स्थान बनवा दिया। इसी कारण ये मूर्तियां बनवाई गई और लगता है पीतल की देवी मूतिंया, राजा लोगों ने बनवाना शुरू किया ताकि वे हर जगह उनकी पूजा कर सकें।
राजा ने जहां दंतेश्वरी की स्थापना करवाई वे स्थान है- कटे कल्याण, बालपेट, बैलाडोला, बारसूर, बस्तर आदि। जहां-जहां भी राजा ने दंतेश्वरी की स्थापना करवाई थी वहां सभी जगह पत्थर की मूर्ति हैं। दंतेवाड़ा के मंदिर में पीतल की बनी कोई मूर्ति नही है और यहां दंतेश्वरी पर पीतल की बनी कोई मूर्ति भी नहीं चढ़ाई जाती ।
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.